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तुलसीदास का जीवन परिचय | रामचरितमानस सहित 12 काव्य रचनाएँ |


"तुलसीदास का जीवन परिचय "




तुलसीदास जी के जीवन चरित्र का सबसे प्रामाणिक रूप अंतसाक्ष्य के आधार पर ही दिया जा सकता है। उनके जीवन से संबंधित अनेक उक्तियां उनकी रचनाओं में मिलती हैं जो उनके जीवन संबंधि तथ्यों को प्रमाणित करती है। गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म 1532 ई. अथार्त 1589 विक्रम संवत में कस्बा राजपुर जिला बांदा में हुआ था । इनके पिता का नाम पंडित आत्माराम था और माता का नाम हुलसी था । यद्यपि पिता का नामोल्लेख इनकी किसी भी कृति में नहीं मिलता परंतु माता का उल्लेख इनकी कृतियों में मिलता है -


"राम ही प्रिय पावन तुलसी सी।
तुलसीदास हितहिय हुलसी सी।"

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फोटो : https://assets.roar.media/Hindi/2018/04/Darshan-of-Lord-Rama-to-Tulsidas-at-Chitrakuta-680x583.jpg?fit=clip&w=492

इसका स्पष्ट अर्थ है कि राम की भक्ति तुलसी के लिए माता हुलसी के हॄदय के समान है । अनेक बहिसाक्ष्यों में भी तुलसीदास जी की माता का नाम हुलसी मिलता है जो परम्परापुष्ट है। इनके विषय में एक प्रसिद्ध जनश्रुति यह भी है कि यह अभुक्त मूल नक्षत्र में पैदा हुए थे । अतः इनके ज्योतिषाचार्य पिता आत्माराम इन्हें जन्मते ही अशुभ मानकर दासी के हवाले कर दिया। इनको जन्म देते समय प्रसव-पीड़ा से इनकी माता का भी देहांत हो जाने पर इनके पिता का क्रोध और भी स्वाभाविक हो गया ।
इनका बचपन का नाम रामबोला था । कतिपय जीवनीयों और जनश्रुतियों के अनुसार जन्म लेते ही राम नाम का उच्चारण किया था इसलिए इनका नाम रामबोला रख दिया गया । कुछ बड़े होने पर जब यह बाबा नरहरि की शरण में गए तब तुलसी के पौधे नीचे तुलसी के पौधे के नीचे सोते हुए इनके मस्तक पर तुलसी के पत्तों का पड़ा हुआ देखकर बाबा नरहरिदास ने इनका नामकरण तुलसीदास कर दिया। इन्होंने अपनी रचनाओं में दो ही नामों का उल्लेख किया है । -

1. "राम को गुलाम नाम रामबोला राख्यो नाम।"

2. "राम नाम को कलपतरू कलि कलयान निवास।
जो सुमिरत भयो भोग ते तुलसी तुलसीदास।।"

परंपरानुसार गोस्वामी जी यौवनावस्था में संस्कृत भाषा और विविध शास्त्रों का पांडित्य प्राप्त कर काशी आ गए। इनकी विद्वता से प्रभावित होकर पास के गांव में किसी ब्राह्मण ने अपनी पुत्री रत्नावली का विवाह इनसे कर दिया। जनश्रुति के अनुसार रत्नावली से उन्हें विशेष मोह था ।इतना कि एक बार जब रत्नावली उन्हें बिना बताए उनकी अनुपस्थिति में मायके चली गई तो उनके वियोग में अत्याधिक व्याकुल हो गए और आधी रात को ही बाढ से आप्लावित नदी को पार कर रत्नावली के गाँव जा पहुंचे। वहाँ ससुराल पक्ष द्वारा किए जाने वाले व्यंग्य से घबराकर ये सीधे रास्ते से तो घर में प्रविष्ट नहीं हुए बल्कि घर के छज्जे पर लटक रही रस्सी को पकड़कर ऊपर रत्नावली के कक्ष में जा पहुंचे । रत्नावली उस समय ही इन्हें देखकर हैरान हुई और आने के साधन को जानने पर तो आवाक रह गई क्योंकि जिसे यह रस्सी समझकर ऊपर आए थे वह साँप था । तुलसीदास जी की वासनान्धता की यह पराकाष्ठा थी । उस समय रत्नावली ने उन्हें बहुत फटकारा और कहा कि


"अस्थि चर्ममय देह मम तासों ऐसी प्रीति ।
जो होती श्री राम मेंह होती न तौ भवभीति ।।"

कहते हैं कि पत्नी द्वारा की गई इस भत्र्सना के बाद से ही तुलसीदास जी का मोहान्ध मन सांसारिक आकर्षण से विरक्त हो गया और राम भक्ति में लीन हो गए । अपनी वृद्धावस्था में उन्हें एक बार भयंकर बाहु-पीड़ा का सामना करना पड़ा था जिसका उल्लेख कवितावली में तो हुआ ही है, "हनुमान बाहुक" तो इस पीड़ा के शमन हेतु ही लिखी गई है ।


पीड़ा की अनुभूति इतनी तीव्र थी की वे कहते है -

"पाव पीर, पेट पीर, बाहु पीर, मुँह पीर ।
जरजर सकल शरीर पीर भई है ।"


परंतु इतने पर भी वे विचलित नहीं हुए और रामभक्ति करते रहे । कष्ट सहिष्णु विनम्र और दृढ़विश्वासी सच्चे भक्त गोस्वामी तुलसीदास ने अपने जीवन काल में यश प्राप्ति कर ली थी । अंततः संवत 1680 में गंगा नदी के किनारे सावन मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को उन्होंने अपने इस भौतिक शरीर का त्याग कर दिया । इस विषय में भी निम्नलिखित दोहा मिलता है-

"संवत सोलह सौ असी असी गंग के तीर ।
श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तज्यो शरीर ।।"




तुलसीदास की रचनाओं का परिचय :-


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गोस्वामी तुलसीदास जी "लोकमानस" के कवि थे । इसका ज्ञान उनकी रचनाओं के वर्ण्य विषय के अवलोकन से ही हो जाता है । गोस्वामी जी ने छोटे बड़े सब मिलाकर कुल 12 ग्रंथों की रचना की । इन रचनाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है।

1. रामललानहछू - राम के यज्ञोपवीतोत्सव के पूर्व होने वाले "नहछू" के उत्सव को लक्ष्य करके ही 'रामलला नहछू' लिखा गया है । इस संस्कार में यज्ञोपवित से पहले नाइन द्वारा बालक के पैर के नाखून काटकर महावर लगाई जाती है । इसका रचनाकाल संवत 1611 है। इसकी भाषा अवधी है तथा यह एक लघु खंडकाव्य है।

2. वैराग्य संदीपनी - इस कृति में संत स्वभाव का वर्णन, संतो के लक्षण, महिमा, सच्चे संतों के गुण, वैराग्य का प्रतिपादन, तथा शांति का निर्देश हुआ है । इसका रचनाकाल संवत 1614 है । इसकी भाषा अवधी मिश्रित ब्रजभाषा है।

3. रामाज्ञा प्रश्न- रामाज्ञा प्रश्न के समस्त कांडों की कथा के साथ शकुन-अपशकुन पर विचार किया गया है। जिससे व्यक्ति आने वाले सुखों का तो ज्ञान प्राप्त कर ही ले साथ ही अनिष्ट को भी जानकर उसके निवारणार्थ प्रयत्न कर ले। इसकी रचना संवत 1621 में हुई। इसकी भाषा ब्रज है।

4. जानकी मंगल - जानकी मंगल का वर्ण्य विषय सीता-राम का शुभ विवाह है । यह एक खंडकाव्य है जिसकी रचना संवत 1627 में की गई । इसकी भाषा पूर्वी अवधि है।

5. रामचरितमानस- रामचरितमानस गोस्वामी तुलसीदास जी का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है जो हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथ का भी स्थान प्राप्त करता है । रामचरित के माध्यम से तुलसीदास जी ने इसमें लोक कल्याणकारी भावना को स्थान दिया है । इसकी रचना अवधि संवत 1631 है ।इसकी भाषा अवधी है।

6. पार्वती मंगल- पार्वती मंगल एक खंडकाव्य है तथा शिव-पार्वती का विवाह इसकी वर्ण्य वस्तु है । इसमें पार्वती जी के जन्म से लेकर विवाह तक की एक कथा का वर्णन मिलता है । इसकी रचना अनुमानत: संवत 1643 में हुई तथा इसकी भाषा ठेठ पूर्वी अवधि है।

7. गीतावली - गीतावली सात कांडों में विभक्त एक गीतिकाव्य है । मानस की ही भांति इसमें भी संपूर्ण राम कथा वर्णित है । इसकी रचना संभवत:1653 में हुई और इसकी भाषा ब्रज है।

8. कृष्ण गीतावली- कृष्ण गीतावली में कृष्ण की लीलाओं से संबंधित पद है, जिसमें अधिकांशत भ्रमरगीत से संबंधित पद है । इसकी भाषा ब्रज है और इसका रचनाकाल संवत 1658 माना जाता है।

9. बरवै रामायण- इसमें रामकथा को सात कांडों में विभक्त किया गया है। यह स्फुट बरवै छंदों का संग्रह है। इसमें श्रृंगार और भक्ति रस की प्रधानता है। संवत 1661 से संवत 1660 के बीच लिखे गए छंदों को इसमें संग्रहीत किया गया है तथा इसकी भाषा अवधी है।

10. दोहावली- दोहावली दोहों और सोरठों का संग्रह है। इसमें भक्ति, नीति, धर्म, आचार-विचार, रीति-नीति, ज्ञान-वैराग्य, रामनाम, महात्म्य, जीव, माया, काल, जग, ज्ञान संबंधी विषयों के दोहे है। इसका रचनाकाल संवत 1614 से संवत 1660 तक माना गया है तथा इसकी भाषा ब्रज है।

11. कवितावली- कवितावली कवित्त छंदों का संग्रह है। इसमें सात कांडों यथा बालकांड-अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधा कांड, सुंदरकांड, लंका कांड और उत्तरकांड में संपूर्ण कथा वर्णित है । कलयुग वर्णन की दृष्टि से उत्तरकांड का विशेष महत्व है।

12. विनय पत्रिका- विनय पत्रिका गोस्वामी तुलसीदास जी की अंतिम कृति मानी जाती है । इसमें उनके व्यक्तिगत अनुनय-विनय के पद है। यह एक याचिका के रूप में लिखी गई है । तुलसीदास जी राम परिवार के समस्त सदस्य सदस्यों से याचना करते हैं कि वे राम से तुलसी को अपनी शरण में लेने के लिए कहे । न केवल राम परिवार से अपितु विभिन्न देवी-देवताओं और विशेष रूप से हनुमान के समक्ष भी वे याचना करते हैं । इसका रचनाकाल भी संवत 1661 से संवत 1660 के बीच माना गया है । इसकी भाषा ब्रज है।



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